तुम मुझे बोले
गन्ने (गंदे) :
गन्दा ही सही,
काश मैं गन्ना होता,
तब तुम्हारे होंठो का,
मुझे स्पर्श तो मिल जाता,
मेरे आचरण रूपी छिलके को ,
उधेड़ उधेड़ कर तुम,
स्नेह की मिठास पा लेती,
अपने उज्जवल धवल दांतों से
मुझे पीस,
मिठास पाकर,
तुम पुलकित हो जाती,
और मेरी मिठास की उर्जा,
तुम्हारी नस नस में विचरण करती,
तब मैं कितना भाग्यशाली होता.
काश मैं झूठा भी होता,
तुम्हे अपनी बाँहों में छिपाकर
अपने भावों को मन में दबाकर,
स्नेह का पोषण करता रहता,
और झूठ बोलता रहता,
तुमसे और समाज से,
तुम्हारे सिमट आने को
तब तक नकारता रहता,
जब तक तुम्हारा स्नेहासिक्त आँचल
मेरे अस्तित्व को,
छिपाकर आत्मसात न कर लेता.
दार्शनिक
काश मैं दार्शनिक होता,
तुम्हारे हर शब्दो को पकड़कर,
विचारों में खेलता रहता ,
और उन्हें. सजाकर,
अपने भावों के गहनों से ,
कुछ कविताएँ रच लेता.
पढाकू
काश मैं पढाकू होता,
सारे बंधन तोड़कर तब,
तुम्हारे हृदय के कोरे कागज़ पर,
स्नेह के भावों से अंकित,
कविताएँ ही पढता रहता,
आत्मविभोर हों जाता,
कुछ न कहता, कुछ न सुनता.
बेईमान
काश मैं भी होता,
चुपके चुपके
तुम्हारी निर्दोष क्रियाओं की,
मधुर मदिरा पीता रहता,
खेल खेल में होने वाली,
ये क्षणिक सी बेईमानी,
मेरे पूरे जीवन में,
तुम्हारे पूरे जीवन को ,
बेमानी कर सामाजिक बंधो को,
अपनी बाँहों में,
स्थिरता से समेट लेती.
बड़े वो हों
‘वो’ होता
जैसा तुम्हे स्वीकृत होता,
तुम्हे व्यथा न देता,
सिर्फ खुशियों की कथा कहता,
तुम्हारा हँसता चेहरा देखना,
ही केवल मेरा व्रत होता.
बड़े सा ही कोमल होता,
भले ही कुछ चटपटा होता,
‘दही’ सी मन में उज्ज्वलता होती,
रूठने और मनाने की चटनी सा
खट्टमीठा होता.
उदास
काश हमेशा उदास ही रहता,
उदासी की निष्क्रियता में,
इतना ही सक्रिय रहता,
तुम्हे प्यार करना ही बस
पूरे जीवन को प्रिय रहता,
इतना उदास रहता,
जितना तुम्हे सह्य न होता,
तुम घिर आती मेरी बाँहों में,
टिका देती अपने सर को
मेरे सीने की धडकन पर,
मुझे न तकती कोई आँखें,
कोई पास न रहता,
तुम मनाती ही रहती मुझे,
जब तक मैं उदास रहता.
पागल
मैं पागल होता,
तुम्हे कुछ भी कहने का
प्रेम को अभिव्यक्ति देने का,
मन में न कोई भय होता,
हर उलझी हुई गुत्थी का,
मेरा पागलपन हल होता.
‘मैं ये होता,
मैं वो होता,
मैं कुछ भी न होता,
होता मेरा सब कुछ तो,
‘केवल तुम्हारे लिए’ होता.’
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