तुम तो अभिव्यक्त कर लेती हो
अपना स्नेह
अपने मिलन के हर क्षण में-
और बिछोह के पल पल में;
जीवन की सब हलचल में ;
“इतनी देर कहाँ रहा”
कहकर मिलन के प्रथम पहर में:
“भूखा हूँ” की चिंताकर प्रतिसहर में ,
भर भर कुछ खाने को देकर
अपने अंक में फिर फिर समेटकर
कुछ मेरे लिए बचाकर
कुछ मुझसे दूर हटाकर
कुछ न लेकर , सबकुछ देकर,
कभी गोद में मुझे सुलाकर
कभी बालों को सहलाकर,
कभी भरकर आँखों में पानी
सुनकर मेरी पीर कहानी:
कभी घूर घूर मेरा चेहरा ,
उतरे स्वास्थ्य पर देकर पहरा
कभी बाँध उस पर सेहरा :
मुझे बुरा गर कहे कभी तो
लड़कर खुद अपनों से भी
मेरी मुस्काने रखने को
मोड़कर मुख , सुख सपनो से भी
यदि दूर हूँ दे दे हिचकी
स्नेह देने में तुम न झिझकी,
हर विधि अभिव्यक्त कर लेती हो
अपना स्नेह मुझपर :
लेकिन .....हाय मैं कैसा लाचार
देख क्षुब्ध स्वयं हूँ अपना व्यवहार;
मन में भाव बहुत गहरे हैं
पर लगते हैं छिछले छिछले
अधूरे अधूरे से ,अधखिले से
तुम जब जानो सौ सौ विधियाँ
एक की भी ना मुझे पहचान,
कैसे? क्या प्रकट कर दूं? मैं अज्ञान
जितना व्यक्त करना चाहूँ
गहराते हैं उतने ही भाव
प्रकट कर दूं या पलने दूं
मेरे मौन ये मन के भाव,
कि तुम मेरे , मैं तुम्हारा ,
तुम कहकर जीत गए पर ,
मौन होकर मैं भी न हारा.
I love this one... the most beautiful tribute a mother can ever get.
ReplyDelete