तृष्णा की मदिरा पी
मतवाला ये संसार
सुख ,सुख,सुख
सुख की तृष्णा में
खोद रहा दुःख के भण्डार
कहाँ मिले इसे आधार
हाय इसका भार
धन वैभव आडंबरों का
करता आलिंगन कहकर साकी
चल,चल , चल
चलती मृत्यु चालाकी
अहम कहीं पे रहा न बाकी
धर्म को कहता तलवार
हाय इसकी हार
सत्य से लगाव नहीं
धर्म का करता व्यापार
तोल ,तोल, तोल
तोलता स्वार्थ मिश्रित प्यार
बेच रहा खुद ही जीवन उधार
दुःख का पारावार
हाय इसका व्यापार
बंधु सखा सभी रिश्ते
करते पल पल प्रहार
प्रेम ,प्रेम , प्रेम
फिर भी प्रेम तृष्णा में
खो दिया खुद का आकार
झूठी इसकी ढार
हाय इसका प्यार
कहीं महल कहीं झोपड़ी
इतनी सी समझ न आती
पढ़ ,पढ़ , पढ़
पढता ढेरों पोथी में
मेरे ही मन के ये उदगार
कितना अनुदार
हाय पागल संसार
कृ.प.उ.
कृ.प.उ.
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