Thursday, July 3, 2014

पूर्णिमा



प्रिये देखो पूर्णिमा का चाँद हमें निहार रहा है ,

स्नेहासिक्त आँचल चाँदनी का हम पर निसार रहा है,

लगता है करेगा अनुरंजन*, प्रेयसी वसुंधरा का

सरका कर अवगुंठन**निशा का, धरा मनोहरा का

करेगा अलंकृत वक्ष व्योम का, तारक मालाओं से

चूम चूम मुख रजनी गंधा, पान करेगा प्रेम सुरा का

करेगा कलोल क्रीडाएं महि के अंग अंगों से

आलिंगन भी कर लेगा ,धरा निर्वस्त्रा का

कहीं डूबेगा पावन सरिता में , कहीं चमकेगा हरित कणों में

कहीं छुएगा शिखा वृक्ष की कभी क्रीडाएं तृणों में

कभी डूबेगा मन के भावों में उभरेगा कविता में

कभी अटकेगा पुष्प निकुंजो में , कभी वन की नीरवता में

प्रिये बताओ प्रेम मेरा क्यों किसी से हार रहा है

देख कलाएं चंचल शशि की तुम्हे पुकार रहा है

उठो बढ़ो तुम भी तोड़ कर सब बंधनों को

और लजा दो चन्द्र धरा के सारे ही आलिंगनों को

उठो उठो अब न रुको रुकना सदा बेकार रहा है

रीति विभावरी का हर पल केवल तुम्हे पुकार रहा है


*1. प्रसन्नता या संतुष्टि 2. रंग से युक्त करना; रँगना 3. अनुराग; प्रीति 4. आसक्ति; मन-बहलाव।

**1. घूँघट 2. परदा 3. बुरका 4. ढकना; घेरना; छिपाना 5. घूँघट निकालना।

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