आघात
प्यार की इक सुंदर प्रतिमा, इक दिन मैं लाया बनाकर
प्रिये ,तुम्हें क्यों रास न आई, किया अपमानित हाथ उठाकरमेरी अटूट साधना का था, ये अनोखा अनुपम उपहार
क्षतविक्षत कर डाला तुमने पल में प्रलय सा कर प्रहार
क्या कहीं झूंठ था इसमें, या था किसी का तिरस्कार
या अपनी ही जीवन हार का, तुम्हे निकालना था गुबार
मुझे याद आते हैं वे दिन, जब मैं साधना में तपता था
तुम देखती बनी अनमनी सी, मैं न पलकें तक झपकता था
तुम क्यों बैठी अनमनी सी, मुझमे न ये प्रश्न ढलते थे
बस तुम्हारे हृदय की लय में, ये छैनी, ये हाथ चलते थे
तुममे उठती थी शंकाएं, पर मैं था विश्वास लिए
सारा जग जिसमे जल जाये, ऐसा एक नि:श्वास लिए
बरस दर बरस बीत गए, आखिर मेरी जीत हुई
पर प्यार की इस प्रतिमा से, तुम क्यों जाने भयभीत हुई
पल में ऐसा किया प्रहार, तारे आ धरती से टकराए
आँखे भी नम हो न सकी,बस देखते ही रहे चकराए
भग्न हृदय , भग्न प्रतिमा,लिए आज मैं फिरता हूँ
अपने दोनों हाथ कटाकर, निर्माण भावों का करता हूँ
प्रिये आज फिर से सोचो, क्यों फिरता मैं उदास हो
तुम गलती चाहे न मानना, मुझे तो भूल का एहसास हो .
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