प्रियवर, कहो तो,कैसे मैं सह सकूंगी
आँखों में प्रतीक्षा का
सुरमा डाले ,और कब तक रह सकूंगी
मैं निरंतर दौड रही हूँ
पास तुम्हारे आने को,
पर जैसे ये अनंत दूरी
बनी ही है तड़पाने को
इतने नियमों के बंधन,
अपने मन की कुंठा क्या कह सकूंगी
आँखों में प्रतीक्षा का
सुरमा डाले ,और कब तक रह सकूंगी
क्यों विवशता शब्द बना
हाय मैं विवश क्यों बनी
पग में क्यों न दृढ़ता आई
क्यों आँखें रही अनमनी ,
क्यों आँखें रही अनमनी ,
इतनी मन की प्रतिक्रियाएं
क्या होकर गंगा सी निर्मल बह सकूंगी
आँखों में प्रतीक्षा का
सुरमा डाले ,और कब तक रह सकूंगी
कृ.प.उ.
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कृ.प.उ.
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