Sunday, December 26, 2021


 झाँसी की रानी 

मैं भी बनू झांसी की रानी

उसके जैसा निखार मिले , उस जैसा ही चरित्र बने

क्या प्यादा और क्या वजीर ,उस जैसे ही मित्र बने

 

कर्मठता हो उस जैसी ही ,वैसा ही हो मन में साहस

मुखपर हरदम हो लालिमा , पूनम हो या हो अमावस

 

उस जैसी हो शारीरिक द्रढता मन में उसका सा स्नेह

सत्य की आग में झुलसे चाहे, ये मेरी कोमल सी देह

 

चूडियों की मधुर खनखनाहट, संगीत भरूं पूरे जीवन में

स्वंत्रता की खातिर लेकिन खड्ग करूँ कर में वहन मैं

 

मर मिटूँ देश की खातिर, विचार बने मेरे भी विस्तृत

माँ की ममता बाल अबोधता, हो सबकी सेवा का व्रत

 

प्यर करूँ एकत्र सभी का, हाथ बने मेरे भी दानी

सीता सावित्री मैत्रेयी सी ज्ञानी,मैं भी बनू झांसी की रानी।

                                             

प्रतीक्षा

सबके घर कागा बोला है

मेरे ही घर क्यों न आया

प्रियतम क्या मुझ तक आने का

तुम्हे अभी तक ख्याल न आया

(सन्देश आने का )

अंदर बाहर

बाहर अंदर

लग रहे घर में चक्कर पे चक्कर

कभी पुकार तुम्हारे नाम की

कभी आंसू आँखों में मथकर

बेसब्री बैचेनी से

प्रतीक्षा कर रहा तुम्हारी

 

तुम्हे गए दिन चार बीते हैं

लगता वर्षों बीत गए हैं

घर का चप्पा चप्पा उदास है

जब से मेरे मन मीत गए हैं

 

बुद्धि को बहुत पाठ पढाये

तुम्हारी ही खुशियों की खातिर

पर मन को कैसे समझाऊँ

जो आ जाये जिद पर फिर फिर

.........तुम जल्दी आ जाओ न .

 

आते आते कहाँ रुक गए तुम

धड़कने मेरी बढ़ गयी हैं

आशाओं का कागा देखने

आँखे मुंडेर पर चढ गई हैं

 

न अब तुम कहीं रुको ,

आओ तुम जल्दी से आओ

सोने को है आशाएं थककर

पूर्व शयन के लोरी गाओ

 

आँख घड़ी पर लगी हुई है

आशाएं ढूंढ रही कोव्वे को

प्रतीक्षा यों कर रहा तुम्हारी

जी करता है अब रोने को

 

आज गले तक भर आया हूँ

धीरज अपना हार गया हूँ

कैसे तुम्हे बुलाऊँ, दूर रहूँ कैसे

सारे भूल व्यवहार गया हूँ

प्रीतम आज आ जाना......

 

चलो यों ही रहने दो, तुम

जीते ,मेरी ही धीरता हारी, 

कितनी बेसब्री बैचेनी से

प्रतीक्षा कर रहा तुम्हारी .

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         आघात

प्यार की इक सुंदर प्रतिमा, इक दिन मैं लाया बनाकर

प्रिये ,तुम्हें क्यों रास न आई, किया अपमानित हाथ उठाकर
मेरी अटूट साधना का था, ये अनोखा अनुपम उपहार

क्षतविक्षत कर डाला तुमने पल में प्रलय सा कर प्रहार

क्या कहीं झूंठ था इसमें, या था किसी का तिरस्कार

या अपनी ही जीवन हार का, तुम्हे निकालना था गुबार

मुझे याद आते हैं वे दिन, जब मैं साधना में तपता था

तुम देखती बनी अनमनी सी, मैं न पलकें तक झपकता था

तुम क्यों बैठी अनमनी सी, मुझमे न ये प्रश्न ढलते थे

बस तुम्हारे हृदय की लय में, ये  छैनी, ये हाथ चलते थे

तुममे उठती थी शंकाएं, पर मैं था  विश्वास लिए

सारा जग जिसमे जल जाये, ऐसा एक नि:श्वास लिए

बरस दर बरस बीत गए, आखिर मेरी जीत हुई

पर प्यार की इस प्रतिमा से, तुम क्यों जाने भयभीत हुई

पल में ऐसा किया प्रहार, तारे आ धरती से टकराए

आँखे भी नम हो न सकी,बस देखते ही रहे चकराए

भग्न हृदय , भग्न प्रतिमा,लिए आज मैं फिरता हूँ

अपने दोनों हाथ कटाकर, निर्माण भावों का करता हूँ

प्रिये आज फिर से सोचो, क्यों फिरता मैं उदास हो

तुम गलती चाहे न मानना, मुझे तो भूल का एहसास हो .

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