Tuesday, October 25, 2011

दृढ़ता

मैं चला ले उर में अपने 
पावन प्रतिमा प्रीतम की
जग क्या मुझको रोक सकेगा ?

          साथ दिया जिनका जग ने 
          क्या वो ना भटके हैं मग में 
          था जिनमे ठुकराने का बल 
          क्यों वो चढ बैठ हैं दृग में 
कर उपेक्षा झूठे जग की 

चाह रखी है संगम की

जग क्या मुझको रोक सकेगा ?

          उठ गया है मेरा ये पग 
          करने जीवन ज्योति जगमग
          इन्द्रासन भी डोल उठेगा 
          जब रखूंगा दृढ़ता से पग 
पिघला कर कैलाशगिरी को 
मैं उतरा हूँ सुंदरबन में 
पग मेरा जग रोग सकेगा ?

Wednesday, October 12, 2011

रोना

जीवन कहाँ गुजारूं अपना 
                  पाऊं कहाँ पर जीवन ठौर,
मरघट भी चिल्लाकर कहता 
                   मत आना तुम मेरी ओर.

आज ढूंढते अश्क मज़ार,
                  मौत स्वयं ही मौत मांगती,
अभी अभी सज आई दुल्हन 
                  आज ही अपनी सौत मांगती

मृत्यु करती हर पल क्रंदन,
               धू धू कर जलता है चंदन
मेरे शव को पर कौन जलाए
                   जिसमे जीवित तेरी तड़पन 

आज मुझे रोने दो जी भर ,
                 आँखे फोड आंसू पीकर ,
सर खुद के कांधे पे रखकर  
                 आज मुझे रोने दो  जी भर ...



                                                         कृ. प. उ.
                                                                                                                                         (नीचे ओल्डर पोस्ट पर क्लिक) 

Friday, October 7, 2011

चुनौती

न डरो अब प्रीतम प्रीति से ,
प्रीति की निर्णित नीति से,
समाज की भ्रामक भीति से
बंधो की कोरी कीर्ति से ;

नियंत्रित कला कलुषित होती है
स्वार्थमयी दुआ दूषित होती है
तुम न डरो रोपित रीति से
जीवन है पोषित ही प्रीति से ;

न डरो अब प्रीतम पीडाओं से
प्रीति की कलोल क्रीड़ाओं  से
भावों के चुभते चित्रण से
प्रेम के रोचक ऋण से ;

वरण करो जीवन ज्योति का
प्रिये ! प्रेम को चुनौती का .

                                                                                  कृ.प. उ.
                                                                                   (नीचे ओल्डर पोस्ट पर क्लिक )    

                                                                      

Thursday, October 6, 2011

विरोध


मेरी पीठ की ओर
तुम्हारी आँखे थी
जिस दिशा में मेरी आँखे थी
तुमने पीठ उधर कर रखी थी
आमने सामने
हम तुम जब मिले थे
बस इतना ही अंतर था हममें
इतना सा ही विरोध.  

प्रतीक्षा


सबके घर कागा बोला है
मेरे ही घर क्यों न आया
प्रियतम क्या मुझ तक आने का
तुम्हे अभी तक ख्याल न आया
(सन्देश आने का )
अंदर बाहर
बाहर अंदर
लग रहे घर में चक्कर पे चक्कर
कभी पुकार तुम्हारे नाम की
कभी आंसू आँखों में मथकर
बेसब्री बैचेनी से
प्रतीक्षा कर रहा तुम्हारी

तुम्हे गए दिन चार बीते हैं
लगता वर्षों बीत गए हैं
घर का चप्पा चप्पा उदास है
जब से मेरे मन मीत गए हैं

बुद्धि को बहुत पाठ पढाये
तुम्हारी ही खुशियों की खातिर
पर मन को कैसे समझाऊँ
जो आ जाये जिद पर फिर फिर
.........तुम जल्दी आ जाओ न .

आते आते कहाँ रुक गए तुम
धड़कने मेरी बढ़ गयी हैं
आशाओं का कागा देखने
आँखे मुंडेर पर चढ गई हैं

न अब तुम कहीं रुको ,
आओ तुम जल्दी से आओ
सोने को है आशाएं थककर
पूर्व शयन के लोरी गाओ

आँख घड़ी पर लगी हुई है
आशाएं ढूंढ रही कोव्वे को
प्रतीक्षा यों कर रहा तुम्हारी
जी करता है अब रोने को

आज गले तक भर आया हूँ
धीरज अपना हार गया हूँ
कैसे तुम्हे बुलाऊँ, दूर रहूँ कैसे
सारे भूल व्यवहार गया हूँ
प्रीतम आज आ जाना......

चलो यों ही रहने दो, तुम
जीते ,मेरी ही धीरता हारी, 
कितनी बेसब्री बैचेनी से
प्रतीक्षा कर रहा तुम्हारी .

सपने

घेराव भय का
पीडाओं का
मेरे चारों ओर
मैं भी एक मंत्री हूँ
पीड़ा विभाग का .
       मेरे खुले
       भू व नभ के मध्य बने
       हृदय सचिवालय पर
       आक्रोश
       पत्थर बरसाता है
       टुकुर टुकुर मेरी आँखे
       भय से
       भविष्य तकती रहती हैं .

                                                              कृ. प.उ.
                                                              (नीचे 'ओल्डर पोस्ट' पर क्लिक)

स्मृतियाँ



स्मृतियाँ उन क्षणोँ की
सिमट आई थी तुम
जब बाँहों में मेरे,
भावों कि चंचलता में
बंध गए थे
सहमे सहमे
क्षणों के घेरे.

२.
प्रेम गीत 
एक गीत,  जो तिर  सके तेरे सूखे अधरों पर

जीवन गुजार  दूंगा , प्रियतम, मैं उसे बनाने मे
वो ज्योत जो रहे प्रज्वलित, तेरे उदास अंधेरों में
तिल तिल बारूँगा तनमन,  मैं उसे जलाने में

३.

निराशाएं 

गिर गया
फिसलकर हाथ से
कांच का गिलास
और खंडित हो गया
उठाकर जोड़ना चाहा
पर जुड़ा नहीं
उंगली से खून बह गया .

पतंग उमंग से खरीदी
आकाश में कुलांचे भरने लगी
पर तभी डोरा टूट गया
दौड कर चाहा पकड़ लूं पर 
ठोकर खायी व  गिर गया 
डोरे से हाथ कट गया .

टूटती आशाएं
बहुत जोड़नी चाही
पर जुडी नहीं
निराशाएं बहने लगी.
४. 
दरार
नहीं होती
भूकंप की घरघराहट ,
खींच जाती है
बिना आहट
संबंधों में एक दरार . 


                                                       कृ.प. उ.

समर्पण



पा तुम्हारे प्यार का आह्वाहन ,
             अर्पित करने ले दौड़ा मैं जीवन
   ये कोई भी संयोग नहीं था
    कोई प्रशाद या भोग नहीं था
      था ये रोम रोम का क्रंदन
      लो सम्हालो तुम मेरा जीवन

आज दिया तुमने तिरस्कार
             का अनोखा अनुपम उपहार
   ये नहीं किसी मुनि का श्राप,
     कोई क्रोध या मन का पाप,
      देखो हंसहंस कहता है दृग्कण
        लो मिटा दो तुम मेरा जीवन” 






                                    कृ. प. उ.
                                                                                                                       (नीचे ओल्डर पोस्ट पर क्लिक)