Friday, July 29, 2011

पहला खत

          मेरे आँगन  फूल खिला                    
          गलियारे ऋतु बसंत आयी
          हरी भरी नदिया लहरायी
          आगे दिवाली की जगमग 
          इन्द्रधनुष पर चढ़कर आई  
ऊपर अटका चाँद भावों का    
बादलों की आँख मिचौनी 
आजू बाजू स्वर्गिक धूप में 
पिघलते जाड़ों का मन बहला 
मेरे आँगन  फूल खिला 
           
           खिडकी पर आ बैठी कोयल 
           रोशनदान से गगन झांकता 
           आशाएं खड़ी हुई देहरी पर 
           सारा जग चुपचाप निहारता

दौडी दौडी आई सुंदरी              
सकुचाती कुछ शर्माती 
मरघट सी प्रतीक्षा थी अब 
उनका पहला खत मिला 
मेरे आँगन फूल खिला 


                                             कृ.प.उ.
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Monday, July 25, 2011

झंझावात


मन में उठते हैं भाव कई
उभरते हैं घाव कई , ज्यों
सागर की उतुंग लहरों पर
तैरती हों टूटी नाव  कई

                   हर नाव पर नाविक होता
                   उसे दिशा मिल ही जाती
                   गर गगन पर चाँद चमकता
                   तो निशा खिल ही जाती
पर जिसे न मिले सहारा
उस पथिक के ठहराव कई
जो भूख से व्याकुल हो
उसे मिलते हैं सुझाव कई
                   जिस पर कोई प्रतिबंध नहीं
                   वहाँ बनते हैं घेराव कई
                   पग उठते जहाँ जाने को
                   वहाँ हो जाते अलगाव कई
                                                                   
                                                                         कृ.प.उ.
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Saturday, July 23, 2011

सर्दी


शीत से कांपते गले की     
घरघराती आवाज से
मुझे सहानुभूति है
चिथड़ों में लिपटी देह के आगे 
जलती आग के सुख की
मुझे खूब अनुभूति है :
मुझे उधेड़ जाते हैं 
किटकिटाते दांत
और नाक से बहता पानी
कांपती उँगलियों से
फटे वस्त्र को देह से
चिपका कर फाड़ने वाले आसामी
गर्म वस्त्र पहन कर
मुझे शीत का भय नहीं है
पर शीत की ऐसी कुटिलता
मेरे मन को सह्य नहीं है .
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Thursday, July 21, 2011

अबीर-जन्म दिन २१ जुलाई २०११

अगस्त २०१० उदयपुर

      अबीर खड़ा लन्दन में      
फैलाये दोउ हाथ
दादा जल्दी आइयो
ले दादी को साथ

सितम्बर २०१० लन्दन

अबीर पड़ा चैन से
दादा की तोंद पर
पापा सताने आ गए
किसने पता बता दिया

मुहँ बनाकर दादी ने
पकडे अपने दो कान 
दादा देखते रह गए
मोहक अबीर मुस्कान

अबीर लाडला मम्मी का
बना पापा का सरताज
दादा दादी करते हैं 
नटखट अदाओं पर नाज़

नवंबर २०१० उदयपुर
अबीर आया  लन्दन से
काट तीन महीने वनवास
घरभर  टेर रहा रास्ते
सबको मिलने की आस

बुआ ने काट लिए मुह भर
अबीर के सुकोमल से गाल
नटखट  मुस्कराता  ही रहा
नहीं गली किसी की दाल

सारा घर ख़ुशी मना रहा क़ि
अबीर ने आते ही ताई लादी
पापा के सर पे चढ़के तब 
नाचा अबीर ताऊ की शादी 

सुन अबीर की मोहक किलकारियां 
दादा दादी का उर भर आता  
उस को सुन्दर  वस्त्र पहिनाकर 
माँ का दिल उछल उछल जाता  



२२.०२.२०११
खुद पैरों पर खड़ा होने को
मचल गया आज बाल अबीर ,
ममता भी ये देख ख़ुशी से
हुई उद्वेलित , और अधीर 

जल्दी जल्दी चलना सीखे
जल्द बड़ा हो जाये अबीर
पापा खेल खिलौने लाकर 
जाने क्या क्या करें तदबीर

पोते ने समझाया आकर
बूढ़े  दादा को ये राज 
क्यों कहते हैं  मूल से 
ज्यादा प्यारा होता ब्याज

2. दादी का लाडला 

प्यारी सोनल ने दिया हमें एक सुन्दर उपहार
सलोना, नटखट आखों वाला अबीर सुकुमार
दिवाली के दीपक सा , होली का अबीर गुलाल
पाकर जिसे दादा दादी ,मन ही मन हुए निहाल

चूमा करती बार बार , माँ उसके उन्नत भाल
और लुटाती ममता अपनी अबीर पर बेशुमार 
रात जागती, दिन न थकती ,ना कोई शिकायत,
इठला इठला कर वो सजाती अपना राजकुमार 

मन मुदित लाख बलाएँ,   दादी लेती बार बार
कहती माँ से जल्दी कर , तू इसकी नज़र उतार
बहुत दूर लन्दन में बढ़ता, अबीर कितना सुंदर
उस तक पहुंचना भी मुश्किल , सात समुन्द्र पार

स्काइप पर देख देख उसकी बाल सुलभ लीलाएं 
भरने अंक तरसती बाहें, पर कोशिशें सारी बेकार

अबीर लगता बहुत ही प्यारा, इसपे सोना चांदी वारा
लिखने लगी  कविता दादी भी , पा  ये प्यारा उपहार

3.  अबीर
जून- जुलाई २०११
स्वर्गिक सुख से बढकर,
तेरी नटखट अठखेलियां
पंचम राग सा सुख देती,
अनगढ़ मीठी तेरी बोलियां

बाँहों में तुझे भरकर लगता
फूलों का मुख चूम रहा हूँ
तेरी गुनगुन की धुन सुनकर
कोयल संग जैसे झूम रहा हूँ

जब जब नृत्य तू करता है
तबतब नाच उठता मनमोर
तेरे जागे बिन तो  लगता
अब तक सो रही है भोर

ठुमकठुमक जब चलता है तू
माँ निहारती,  ले ले बलाएँ 
दादी झूमती पुलकित होकर,
खड़े रहते सब फैलाकर बाहें.

पापा हवा में तुझे उछालते
तब रुक जाती साँसे दादा की
पर देख सलोनी तेरी मुस्कानें
आश लगाते सब ज्यादा की

बार बार चूमती तेरा भाल,और
दादी सिखलाती हाथों के करतब
बच्चों सी किलकारी सब भरते,
छोटे से हाथों से तू करता जब

मैया खाना ले पीछे दौड़े,पर 
मुहं बना बच निकल जाये,
खूब खिजाये कृष्ण कन्हैया
फिर खाकर एहसान जताए

तू सोता दादा के काँधे चढ
जय जगदीश की आरती सुन
निंदिया  दौडी दौडी आती
मीठे सपनों की धुन सुन


निर्मल नीर सा तेरा बचपन
तत्पर छूने को नील गगन
इतनी ऊँची छलांग लगा,कि
गर्वित हो मेघों का भी मन

इन्द्रधनुष की मालाएं लेकर
सौ सौ खड़ी मिलें अप्सराएँ
सुंदर सलोने तेरे चेहरे से
पूरी हों सबकी अभिलाषाएं




                                   कृ. प. उ.
                                                                                                                            (नीचे ओल्डर पोस्ट पर क्लिक) 

Tuesday, July 19, 2011

"मम्मी"

तुम तो अभिव्यक्त कर लेती हो
अपना स्नेह
अपने मिलन के हर क्षण में-
और बिछोह के पल पल में;
जीवन की सब हलचल में ;
“इतनी देर कहाँ रहा”
कहकर मिलन के प्रथम पहर में:
“भूखा हूँ” की चिंताकर प्रतिसहर में ,
भर भर कुछ खाने को देकर
अपने अंक में फिर फिर समेटकर
कुछ मेरे लिए बचाकर
कुछ मुझसे दूर हटाकर
कुछ न लेकर , सबकुछ देकर,
कभी गोद में मुझे सुलाकर
कभी बालों को सहलाकर,
कभी भरकर आँखों में पानी
सुनकर मेरी पीर कहानी:

कभी घूर घूर मेरा चेहरा ,
उतरे स्वास्थ्य पर देकर पहरा
कभी बाँध उस पर सेहरा :

मुझे बुरा गर कहे कभी तो
लड़कर खुद अपनों से भी
मेरी मुस्काने रखने को
मोड़कर मुख , सुख सपनो से भी
यदि दूर हूँ दे दे हिचकी
स्नेह देने में तुम न झिझकी,
हर विधि अभिव्यक्त कर लेती हो
अपना स्नेह मुझपर :
लेकिन .....हाय मैं कैसा लाचार
देख क्षुब्ध स्वयं हूँ अपना व्यवहार;
मन में भाव बहुत गहरे हैं
पर लगते हैं छिछले छिछले
अधूरे अधूरे से ,अधखिले से
तुम जब जानो सौ सौ विधियाँ
एक की भी ना मुझे पहचान,
कैसे? क्या प्रकट कर दूं? मैं अज्ञान
जितना व्यक्त करना चाहूँ
गहराते हैं उतने ही भाव
प्रकट कर दूं या पलने दूं
मेरे मौन ये मन के भाव,
कि तुम मेरे , मैं तुम्हारा ,
तुम कहकर जीत गए पर ,
मौन होकर मैं भी न हारा.

Friday, July 15, 2011

तृष्णा

   तृष्णा की मदिरा पी 
   मतवाला ये संसार 
     सुख ,सुख,सुख 
   सुख की तृष्णा में 
खोद रहा दुःख के भण्डार 
   कहाँ मिले इसे आधार 
     हाय इसका भार 
             
                         धन वैभव आडंबरों का 
                    करता आलिंगन कहकर साकी 
                             चल,चल , चल 
                         चलती मृत्यु चालाकी 
                       अहम कहीं पे रहा न बाकी
                         धर्म को कहता तलवार 
                              हाय इसकी हार 

     सत्य से लगाव नहीं 
   धर्म का करता व्यापार 
       तोल ,तोल, तोल 
  तोलता स्वार्थ मिश्रित प्यार 
 बेच रहा खुद ही जीवन उधार 
      दुःख का पारावार 
     हाय इसका व्यापार 

                               बंधु सखा सभी रिश्ते 
                                करते पल पल प्रहार 
                                    प्रेम ,प्रेम , प्रेम 
                               फिर भी प्रेम तृष्णा में 
                             खो दिया खुद का आकार 
                                   झूठी इसकी ढार
                                   हाय इसका प्यार 

     कहीं महल कहीं झोपड़ी 
    इतनी सी समझ न आती 
          पढ़ ,पढ़ , पढ़ 
       पढता ढेरों पोथी में 
    मेरे ही मन के ये उदगार 
         कितना अनुदार 
        हाय पागल संसार 


                                         कृ.प.उ.
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Wednesday, July 13, 2011

प्रतीक्षा -१

कोई किरण
छू गयी
मेरे मन की दुखती रग को,
कोई शूल
दे गया वेदना
चलते चलते मेरे पग को,
कोई सांझ बना गयी बाँझ,
एकाकी सारे जग को,
कोई आशा
दे गयी प्रतीक्षा
मेरे सूने सूने द्रग को.
!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

प्रतीक्षा-२

इतनी लंबी लंबी दूरी,
प्रियवर, कहो तो,कैसे मैं सह सकूंगी
आँखों में प्रतीक्षा का
सुरमा डाले ,और कब तक रह सकूंगी
मैं निरंतर दौड रही हूँ
पास तुम्हारे आने को,
पर जैसे ये अनंत दूरी
बनी ही है तड़पाने को
इतने नियमों के बंधन,
अपने मन की कुंठा क्या कह सकूंगी
आँखों में प्रतीक्षा का
सुरमा डाले ,और कब तक रह सकूंगी
क्यों विवशता शब्द बना
हाय मैं विवश क्यों बनी
पग में क्यों न दृढ़ता आई
क्यों  आँखें रही अनमनी ,
इतनी मन की प्रतिक्रियाएं
क्या होकर गंगा सी निर्मल  बह सकूंगी
आँखों में प्रतीक्षा का
सुरमा डाले ,और कब तक रह सकूंगी


            कृ.प.उ.
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Monday, July 11, 2011

तंगहाल जिंदगी

थोड़ी  मदिरा,  ढेरों प्याले
जर्जर तन सी साकी बाले 
जाम मिले हैं सारे प्यासे
किसको टालें,किसमे डालें
            कैसे मौज़ मस्ती में जीना 
            क्या इसी को कहते जीना 
पहले ही रिक्त  पड़े थे प्याले 
करते   जीवित उर के छाले
आज करें हम स्वागत कैसे 
ओ अतिथि नये आने वाले 
           लघु हो रहा जीवन कितना 
           क्या इसी को कहते जीना 
खाली जेबें , सफर है लंबा 
एक कमाये सौ का कुनबा 
दातभात दहेज की सी रस्मे 
दरिया बीच अटल है खम्बा 
           तंगी में ढीला पडा है सीना 
           क्या इसी को कहते जीना 
पड़ी थी जब पैसों की ढेली,
आ बैठते सखा सहेली
आज पड़ी जब हमें जरूरत
सर चढाते ओ गंगू तेली
           मुस्काकर फिर भी आदर दीना
           क्या इसी को कहते जीना 
बिखर गए सब साथी अपने 
बनकर छोटे छोटे सपने
देश पराये प्यार नहीं है 
अपने घर ही होते हैं अपने 
           दर  पराये    जाकर पीना
           क्या इसी को कहते जीना  


                                          कृ.प.उ.
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